जॉन ड्राइडन का काव्य सिद्धांत

जॉन ड्राइडन का पाश्चात्य आलोचना जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे | वे आलोचक के साथ-साथ प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा व्यंग्यकार थे। उनके आलोचना सिद्धान्त उनकी रचनाओं की भूमिकाओं में मिलते हैं। उन्होंने सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार की आलोचनाओं के बारे में अपने मत व्यक्त किए। वे एक महान विद्वान् थे। प्राचीन ग्रीक एवं रोम साहित्य का उनको पूर्ण ज्ञान था। उन्होंने पाश्चात्य कवियों एवं साहित्यकारों का गहन अध्ययन किया था। प्राचीन के प्रति निष्ठा रखते हुए भी उन्होंने नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। वे परम्परा को स्वीकारते थे, लेकिन युगबोध से बेखबर नहीं थे।

ड्राइडन से पूर्व अरस्तू, हौरेस, बोयलो आदि के सिद्धान्त काफी प्रसिद्ध थे। ड्राइडन की स्वच्छन्द प्रतिभा उनके विचारों से सहमत नहीं थी। वे चाहते थे कि कलाकार या कवि अचेतन मन से काव्य के नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन करे और काव्य-कला में लीन हो जाए। उन्होंने पूर्व प्रचलित काव्य-परंपराओं व अवधारणाओं का अंधानुकरण नहीं किया |

काव्य की प्रकृति तथा कलाकृति के प्रयोजन के बारे में उन्होंने सर्वथा नवीन एवं क्रान्तिकारी विचार प्रस्तुत किए। उसने त्रासदी की कथावस्तु को नगण्य माना। उन्होंने विषय की एकरूपता तथा संकलनत्रय आदि के बारे में सन्देह व्यक्त किया।

(1) जॉन ड्राइडन की प्रमुख रचनाएँ

जॉन ड्रायडन की काव्य संबंधी अवधारणा को जानने से पूर्व उनकी विभिन्न साहित्यिक रचनाओं का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक होगा |

(क) नाटक

(i) वाइल्ड गेलेंट (1663)

(ii) द राइवल लेडीज़ (1664)

(iii) द इण्डियन एम्परर (1665)

(iv) सीक्रेट लव, द मैडेन क्वीन (1668)

(v) सर मार्टिन र आल, द फ्रैंड इनोसेन्स (1668)

(vi) द एसाइनेशन, लव इन ए मनरी (1672)

(vii) द स्टेट ऑफ इनोसेन्स एण्ड द फाल आफ मैन (1680)

(viii) द काइण्ड, कीपर मि. लैम्बर हैम (1680)

(ख) काव्य-रचनाएँ

(i) अपान द डेथ आफ लार्ड हेस्टिंग्स (1649)

(ii) टु माई लाई चांसलर

(iii) वर्सेस टु हर लायल हाईनेस, द डचेज आफ यार्क (1665)

(iv) ब्रिटेनिया रेडिविवा, ए पेनेगिरिकल पोयम टु द मेमोरी आफ द काउण्टेस ऑफ एविंग्डम (1662)

(v) एन ओड आफ द डेथ आफ मि. हेनरी परनेले (1669), द सेक्यूलर मास्क, द पिलिग्रम आदि

(ग) समीक्षा सम्बन्धी रचनाएँ

(i) ऐसे ऑन ड्रामेटिक पोयजी, ए लाइफ आफ प्लुटार्क (1683)

(ii) लाइफ आफ लूसियन (1681)।

ड्राइडन ने कविता और नैतिक सत्य के बीच एक प्रगाढ सम्बन्ध स्वीकार किया है। इस दृष्टिकोण से वे प्लेटो का समर्थन करते दिखाई देते हैं | उनका कहना है कि जिस कविता के अन्दर से सत्य प्रकट नहीं होता, वह कविता मानव-मन की गहराइयों को छू नहीं सकती। ऐसी कविता का प्रभाव क्षणिक मानते हैं | ड्राइडन ने वर्जल के काव्य की इसलिए प्रशंसा की क्योंकि उसमें से सत्य उभरकर आता है और यह सत्य पाठक के हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाता है।

(2) काव्य-प्रयोजन सम्बन्धी विचार

ड्राइडन से पूर्व काव्य के तीन प्रयोजन माने जाते थे — शिक्षा देना, आनन्द देना और आत्मोल्लास प्रदान करना। जहाँ सिडनी ने Delightful Teaching को कविता का प्रयोजन माना था, वहीं ड्राइडन ने आनन्द को प्रधान प्रयोजन माना।

ड्राइडन इस विषय में लिखते भी हैं —

“Delight is the chief, if not the only end of poesy instruction can be admitted but in the second place; for poesy only instructs as it delights.”

एक स्थल पर वे स्पष्ट कहते हैं —

“जिस युग में रहता हूँ, उसे आनन्दित करना मेरा मुख्य प्रयोजन है. ….यदि पथ से आनन्द प्राप्त होता है तो मुझे सन्तोष है, क्योंकि आनन्द यदि एक मात्र नहीं तो कविता का प्रयोजन अवश्य है। शिक्षा को दूसरा स्थान दिया जा सकता है, क्योंकि कविता आनन्दप्रद होने पर ही शिक्षाप्रद होती है।”

(3) काव्य विषय संबंधी विचार

ड्राइडन ने काव्य के विषयों के चुनाव की ओर विशेष ध्यान दिया है। उनका विचार था कि कवि को काव्य विषयों का चुनाव करते समय बहुत सतर्कता बरतनी चाहिए। कारण यह है कि विषय के कारण ही कविता पाठकों को प्रभावित करती है। छोटे और हल्के विषयों पर आधारित कवित महान नहीं हो सकती। अतः महान् काव्य के लिए महान् विषय होना चाहिए।

इसके अतरिक्त ड्राइडन कहते हैं कि प्रत्येक युग की अपनी परिस्थितियाँ और समस्याएँ होती हैं। अतः काव्य का विषय युगबोध से संबंधित होना चाहिए। केवल उन्हीं विषयों को काव्य में लिया जा सकता है जो उस युग के लिए महत्त्वपूर्ण हों।

इस प्रकार ड्राइडन ने काव्य विषय के बारे में पाँच बातें स्पष्ट की हैं —

(i) काव्य का संबंध मानव प्रकृति से है।

(ii) काव्य मानव प्रकृति का मानस चित्र है।

(iii) यह मानस चित्र यथार्थ होना चाहिए।

(iv) यह चित्र प्राणवान होना चाहिए।

(v) काव्य के विषय का प्रयोजन आनन्द देना और शिक्षा देना होना चाहिए।

(4) अनुकरण और कल्पना

यूनानी समीक्षा जगत् में अनुकरण का विशेष महत्त्व रहा है। प्लेटो ने काव्य को इसलिए त्याज्य माना क्योंकि वह अनुकरण का अनुकरण है और मूल सत्य से तिगुनी दूरी पर है। परन्तु अरस्तू ने काव्य कला को अनुकरण पर आधारित माना। अरस्तू का अनुकरण पुनः सृजन की एक प्रक्रिया है। यद्यपि सिडनी ने भी काव्य को अनुकरण की कला के रूप में मान्यता दी। लेकिन उन्होंने अनुकरण का अर्थ ‘आदर्श अनुकरण’ स्वीकार किया।

ड्राइडन भी काव्य को वस्तुओं व घटनाओं का अनुकरण मानता है, लेकिन वह कविता में वस्तुओं के आदर्श रूप के अनुकरण पर ही बल देता है। ड्राइडन कविता को प्रकृति के आदर्श रूप का अनुकरण मानते हैं |

इस संबंध में ड्राइडन कहते हैं —

“कला भी प्रकृति की सृजनात्मक प्रक्रिया का अनुकरण करती हुई वस्तुओं को उनके आदर्श रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। इसलिए चित्रकला की भाँति कविता में भी जीवन और मानवतावाद का आदर्श रूप चित्रित होता है।”

लेकिन ड्राइडन के विचारानुसार कविता में होने वाला अनुकरण यथावत नहीं होता। इसमें कवि-कल्पना और कवि के व्यक्तित्व का योगदान होता है। इसलिए कविता में सौन्दर्य और चमत्कार रहता है। कवि मानव जीवन का यथार्थपरक चित्रण नहीं करता। वह अपनी प्रतिभा और बुद्धि के द्वारा उसे अधिक सुंदर बनाने का प्रयास करता है। वस्तुत: वह प्रकृति में घटित होने वाली घटनाओं को अपनी प्रतिभा के बल पर आदर्श रूप में प्रकट करने का प्रयत्न करता है | वह केवल वही नहीं दिखता जो समाज में घटित हो रहा है बल्कि वह उस आदर्श समाज को भी प्रकट करता है जैसा वह होना चाहिए |

इससे स्पष्ट होता है ड्राइडन कवि या कलाकार को केवल अनुकर्ता नहीं मानता। वह उसे ‘सृष्टा’ मानता है, जिसका उद्देश्य वास्तविक वस्तु से अधिक सौन्दर्यपूर्ण रचना का निर्माण करना है।

“Now poet does not leave things as he finds them but handles them, heightens their quality and so creates something that is beautiful and his own.”

अनुकरण को स्पष्ट करने के लिए ड्राइडन कवि की तुलना बंदूक बनाने वालों अथवा घड़ी बनाने वाले कलाकारों से करता है। जिस प्रकार बंदूक में प्रयुक्त लोहे और लकड़ी की कोई कीमत नहीं होती। लेकिन बंदूक बनाने वाला कलाकार अपनी कला के कौशल से लोहे और लकड़ी को इस प्रकार जोड़ता है कि उसकी रचना एक विनाशकारी बंदूक बन जाती है। घड़ीसाज द्वारा बनाई घड़ी बहुमूल्य वस्तु बन जाती है | इसी प्रकार कवि या कलाकार जीवन की सामान्य घटनाओं को एक ऐसे आदर्श रूप में प्रस्तुत करता है कि वे घटनाएँ पाठक अथवा श्रोता को आनन्द प्रदान करने लगती हैं।

संक्षेप में ड्राइडन का विचार है कि कवि जीवन का चित्रण इस ढंग से करता है कि उसका सर्वाधिक उज्ज्वल रूप उभरकर पाठकों के सामने आता है।

(5) कल्पना का स्वरूप

कल्पना के लिए जॉन ड्राइडन ने ‘फैन्सी’ शब्द का प्रयोग किया है। फैन्सी से उसका मतलब है — Imagination. कालरिज भी काव्य के लिए Imagination को आवश्यक मानते हैं। ड्राइडन के अनुसार कविता में ‘कल्पना’ का होना जरूरी है |

ड्राइडन का विचार है कि यदि कोई काव्य में जीवन का यांत्रिक वर्णन करता है, प्रकृति का यथावत अंकन करता है, तो वह प्रकृति की चोरी है |

इस संबंध में ड्राइडन ने कहा है कि कवि को अपनी अन्तर्निहित कल्पना शक्ति द्वारा काव्य सौन्दर्य की वृद्धि करनी चाहिए। यद्यपि ड्राइडन ने कथानक को गौण माना है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह कथानक को महत्त्व नहीं देता या उसका विरोध करता है। उसका तो यही कहना है कि जब तब कथानक कल्पना के रूप में चित्रित नहीं किया जाएगा तब तक वह पाठक को प्रभावित नहीं कर सकेगा।

जॉन ड्राइडन कल्पना शक्ति को एक ऐसी शक्ति समझता है, जो एक तेज शिकारी कुत्ते की तरह समवर्ती क्षेत्र में भावों पर ऐसी दौड़ लगाती है जिसके द्वारा वह अनुभूतियों को व्यक्त कर सकती है।

उनके मतानुसार महाकाव्य और ऐतिहासिक काव्य में कल्पना का विशेष महत्त्व है, क्योंकि ये दोनों विधाएँ रमणीय चरित्रों, कृत्यों, मनोवेगों, स्थायी भावों और विचारों को प्रस्तुत करती हैं। इन सबका वर्णन कवि कल्पना का सहारा लेता हुआ उचित, स्पष्ट, अलंकारिक भाषा का उपयोग करता है। ऐसा करने से अनुपस्थित विषय भी हमारी आँखों के सामने साकार हो जाता है। कल्पना शक्ति से ही सफल बिम्बों की सृष्टि होती है |

जॉन ड्राइडन के अनुसार साहित्य-प्रक्रिया की तीन अवस्थाएँ हैं —

(i) प्रथम क्रिया द्वारा कवि उपयुक्त विचारों को पाता है।

(ii) दूसरी क्रिया में वह प्राप्त किए विचारों को विषयानुसार ढालता है।

(ii) तीसरी क्रिया में वह इन विचारों को उचित एवं सात्विक शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करता है।

तीसरी अवस्था में ‘कल्पना’ तत्त्व की प्रधानता स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती है |

(6) नाट्य कला संबंधी विचार

जॉन ड्राइडन ने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘राइवल लेडीज़’ की प्रस्तावना में नाटक के विषय पर अपने मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं |

ड्राइडन नाटक को जीवन का जीवित चित्र मानता है। इस संबंध में वे
लिखते हैं —

“A just and lively image of human nature, representing its passions and humours, and the changes of fortune to which it is subjects, for the delight and instruction of mankind.”

ड्राइडन स्वयं एक सफल नाटककार था। इसलिए उन्होंने वीर नाटकों और रंगमंच संबंधी विषयों पर अपने विचार प्रकट किए हैं। इसी संदर्भ में उन्होंने कहा है कि नाटक में वर्णित मानव स्वभाव मूल सत्य से अधिक उज्ज्वल, सत्य और प्राणवान होना चाहिए। नाटक में वर्णित यथार्थ मूल सत्य को प्रकट करने वाला होना चाहिए।

ड्राइडन ने नाटक में प्रासंगिक कथाओं की आवश्यकता पर बल दिया। उनका विचार था कि नाटक में आधिकारिक कथा के साथ उप-कथाओं की योजना हो सकती है। ये उप-कथाएँ नाटक के लिए आवश्यक हैं। ड्राइडन का नाटक संबंधी यह चिन्तन स्थापित परम्परा के विरुद्ध और क्रान्तिकारी था। वीर नाटकों के बारे में वे कहते हैं कि ऐसे नाटकों के पात्र, शैली, घटनाक्रम आदि सभी उत्कृष्ट होना चाहिए। ऐसे नाटकों के नायक भी महान् चरित्र वाले हों ताकि नाटक अपने आदर्श रूप को बनाए रखे।

ड्राइडन ने नाटकों के लिए पद्यबद्ध शैली की वकालत की। उनका कहना था कि नाटक में प्रयुक्त कथोपकथन अलंकार युक्त छंदोबद्ध शैली में होने चाहिएँ। इस सम्बन्ध में वे कहते हैं कि नाटककारों में गद्य का प्रयोग न करने का का कारण यह भी है कि गद्य वार्तालाप के स्वरूप के अधिक निकट होता है और उसमें अतिसाम्य का दोष झलकने की आशंका रहती है। पद्य में भी ड्राइडन ने अतुकान्त के मुकाबले में तुकान्त पद्य को अधिक महत्त्व दिया। उनका विचार था कि तुकान्त पधबद्ध नाटक अधिकतर प्रभावशाली होते हैं |

(7) संकलनत्रय संबंधी विचार

ड्राइडन संकलनत्रय के पक्ष में थे। उनका विचार था कि ऐसा करने से
नाटक यथार्थ के अधिक समीप पहुँच जाता है।

‘काल की अन्विति‘ के बारे में वे लिखते हैं, ‘अभिनय और नाट्य कला का संबंध उस अवधि से सर्वाधिक अनुपात में होना चाहिए जिसमें कि वह प्रस्तुत किया जाना चाहिए।’ वह नाटक के लिए 24 घंटे की अवधि निर्धारित करता है। काल की अन्विति के सन्दर्भ में उनका यह भी कहना था कि नाटक के सभी अंक बराबर होने चाहिएँ। कोई अकेला अंक न बड़ा होना चाहिए न छोटा। इसी प्रकार से अंकों के बीच अवकाश भी बराबर बँटा होना चाहिए।

‘स्थानगत अन्विति‘ के बारे में उनका विचार है कि नाटक रंगमंच पर खेला जाता है और रंगमंच एक ही होता है। अतः नाटक में अनेक दृश्य नहीं होने चाहिएँ और न ही उन दृश्यों के घटनास्थल एक-दूसरे से दूर होने चाहिएँ। नाटक के विभिन्न स्थलों को इस प्रकार से संजोया जाना चाहिए कि विविध विषयों के बावजूद एक ही शहर या नगर के विभिन्न स्थलों का आभास हो। ऐसा करने से जब अभिनेता रंगमंच पर आएगा और जाएगा तो नाटक की गति में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होगी।

संकलनत्रय में नाटक के ‘कार्य की अन्विति’ को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। ड्राइडन के मतानुसार नाटक में एक ही मूल कथा की योजना होनी चाहिए ताकि नाटककार उसका सफल निर्वाह कर सके। साथ ही नाटक के उद्देश्य में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो।

ड्राइडन के अनुसार नाटक की उपकथाएँ मूल कथा के निर्वाह में सहायक होनी चाहिएँ । यदि ऐसा नहीं हुआ तो कार्य की अन्विति में बाधा उत्पन्न होगी।

एक स्वच्छन्दतावादी आलोचक होने के कारण ड्राइडन ने संकलनत्रय को आवश्यक माना हैपरन्तु उसका अंधानुकरण नहीं किया |

(8) जॉन ड्राइडन के हास्य रचना और प्रहसन संबंधी विचार

ड्राइडन ने अपने ग्रंथ ‘Preface to an Evening loves‘ में हास्य रचना और प्रहसन के बीच भेद किया है। दोनों में भेद करते हुए वे कहते हैं —

(1) हास्य रचना में निम्न वर्ग के पात्र होते हैं और उनके स्वाभाविक तथा यथार्थ जीवन का वर्णन रहता है। इसके विपरीत प्रहसनों में यह वास्तविकता और स्वाभाविकता नहीं होती।

(2) हास्य रचना एक विशेष उद्देश्य को लेकर चलती है जबकि प्रहसन उद्देश्यहीन होता है।

(3) हास्य रचना में मनुष्य के व्यक्तित्व के दुर्बल स्थलों का संकेत रहता है। उसका समूचा प्रभाव संतोषप्रद होता है। लेकिन प्रहसन का समग्र प्रभाव घृणात्मक होता है।

(4) हास्य रचना समाज की बुराइयों पर करारी चोट करती है। उसका उद्देश्य महान होता है। वह समाज की त्रुटियों, दुर्बलताओं का वर्णन करती हुई समाज को उनसे मुक्त करना चाहती है। इसके मुकाबले में प्रहसन का लक्ष्य पाठक को सस्ता मनोरंजन प्रदान करना है।

(5) हास्य रचना का आनन्द उठाने के लिए विवेकशील और बुद्धिमान दर्शक होने चाहिएँ। लेकिन प्रहसन ऐसे पाठकों के लिए होता है जो मानसिक दृष्टि से हल्के स्तर के होते हैं। ऐसे दर्शक विवेकशील नहीं होते और उनमें निर्णय लेने की शक्ति नहीं होती।

ड्राइडन लिखता है —

“हास्य में निम्न वर्गीय पात्रों के जीवन का स्वाभाविक और यथार्थ चित्रण होता है। इसके विपरीत प्रहसन में इस यथार्थता और स्वाभाविकता का अभाव होता है। हास्य मनुष्य की दुर्बलताओं की ओर संकेत करता है, जबकि प्रहसन ऐसा नहीं करता। हास्य के पीछे एक विवेकपूर्ण दृष्टिकोण होता है परन्तु प्रहसन निरुद्देश्य भी हो सकता है। कुल मिलाकर हास्य रचना, सन्तोष और प्रहसन रचना घृणा की अवतारणा करती है।”

(9) भाषा संबंधी विचार

जॉन ड्राइडन शुद्ध अंग्रेजी भाषा के पक्षधर थे। वे यह नहीं चाहते थे कि भाषा को अधिक कठिन या आडम्बरपूर्ण बनाया जाए। वे भाषा में विदेशी शब्दों के आधिक्य के विरुद्ध थे। फ्रांसीसी भाषा की तरह वे अंग्रेजी भाषा को भी एकरूपता प्रदान करना चाहते थे।

उनका यह विचार था कि तुच्छ विषय के लिए गरिमामयी भाषा का प्रयोग सर्वथा अनुचित है। वे पुनरावृत्ति और अतिशयोक्ति की बहुलता के पक्ष में नहीं थे।

वे ‘वाग्स्फीति’ को पसंद नहीं करते थे। उनका विचार था जो अर्थ एक पंक्ति में दिया जा सकता था। उसके लिए अनेक पंक्तियों का प्रयोग करना अनुचित है।

वे उदात्त शैली के प्रबल समर्थक थे। काव्य उत्कर्ष के लिए ड्राइडन ने अलंकार प्रयोग पर तो बल दिया लेकिन साथ ही कहा कि अलंकार प्रयोग विषय और पात्रों के अनुसार होना चाहिए। इस दृष्टि से ड्राइडन लोंजाइनस से अत्यधिक प्रभावित दिखाई देते हैं।

(10) जॉन ड्राइडन का योगदान

जॉन ड्राइडन अपने समय के एक महान् कवि, नाटककार और समालोचक थे। उन्होंने फ्रांसीसी तथा ग्रीक साहित्य का न केवल अध्ययन किया, बल्कि उनकी त्रुटियों को भी रेखांकित किया। इसी सन्दर्भ में उन्होंने अंग्रेजी काव्य और साहित्य के महत्त्व का प्रतिपादन किया। उनके आलोचनात्मक विचार पाठक तथा लेखक के बीच पुल का काम करते हैं। वे प्राचीन अन्धानुकरण के विरुद्ध थे और युगीन परिस्थितियों तथा समस्याओं के प्रति जागरूक थे। ड्राइडन की समूची आलोचना उनकी मौलिक दृष्टि की परिचायक है। तुलनात्मक और ऐतिहासिक तुलना के क्षेत्र में उनका योगदान प्रशंसनीय है | शास्त्रीय नियमों का अन्धानुकरण न करते हुए उन्होंने बदली परिस्थितियों और सन्दर्भो में आलोचना के नए प्रतिमान तैयार किए।

एक विद्वान् आलोचक के शब्दों में —

“आलोचक के रूप में उनकी सफलता का रहस्य स्थानीय सन्दर्भो में साहित्य के नये मूल्यों का निर्माण करना था जिसके द्वारा उन्होंने साहित्य के प्रतिमानों का निर्विकार रूप से विश्लेषण किया और उन्हें व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया।”

ड्राइडन के अनुसार काव्य का मुख्य प्रयोजन आनन्द प्रदान करना था। नीति और उपदेश को उन्होंने गौण स्थान दिया। लेकिन उनकी प्रमुख देन है कि युग की परिस्थितियों एवं समस्याओं का काव्य में वर्णन होना चाहिए | कोई भी कलाकार पुरातन परम्पराओं से चिपका रहकर यदि अपने युग की उपेक्षा करता है तो वह सच्चा कलाकार नहीं हो सकता।

ड्राइडन ने कला की सफलता सौन्दर्य-सृष्टि में मानी। वे कला और सौन्दर्य को अभिन्न मानते थे।

उन्होंने जिन साहित्यकारों का आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया वह पूर्णत: तथा निष्पक्ष एवं खुले मस्तिष्क से किया। विशेषकर, भाषा-शैली के बारे में उनके विचार सर्वथा मौलिक थे। उन्होंने भाषा के परिष्कार की बात की परन्तु आडम्बरयुक्त भाषा को निषेध माना |

आलोचना के क्षेत्र में जॉन ड्राइडन के योगदान को स्पष्ट करते हुए एक विद्वान लिखते हैं —

“अंग्रेजी आलोचना के क्षेत्र में ड्राइडन एक महान विभूति के रूप में अवतरित हुए हैं। उन्होंने पहली बार साहित्यिक आलोचना को मानवीय संवेदना के पावन धरातल पर प्रतिष्ठित किया। वस्तु का मनोवैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण और उनके शब्दों का उदात्त चयन तथा उनकी गरिमामयी शैली ; ये सब उनके कृति-व्यक्तित्व के ऐसे तत्त्व हैं जो ड्राइडन को उनके आलोचक व्यक्तित्व की सीमा में भी महान बना देते हैं। वे पहले साहित्यकार हैं जिन्होंने अंग्रेजी भाषा को उसकी अपनी आलोचना के प्रतिमान दिए। आलोचना के क्षेत्र में उन्हें वही स्थान प्राप्त है जो दांते, गेटे और जॉनसन को प्राप्त है।”

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

लोंजाइन्स का उदात्त सिद्धांत

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ ( Alankar Siddhant : Avdharna Evam Pramukh Sthapnayen )

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

साधारणीकरण : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

महाकाव्य : अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं ( तत्त्व ) व स्वरूप ( Mahakavya : Arth, Paribhasha, Visheshtayen V Swaroop )

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